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प्रश्न- एक कविता

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प्रश्न- एक कविता करूँ सामना फिर मैं कैसे हर आनन में प्रश्न समाये। कानन सुरसरि पर्वत खोये झरने सभी गये सुखाये। जलचर नभचर थलचर पूँछे नीड़ हमारे कहाँ समाये। वसनहीन वसुन्धरा हुई कैसे वीरानी आँचल पसराये। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर

सेतु-एक कविता

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सेतु-एक कविता कानन बीच बहे लघु सरिता देख सभी ही रुक जाये। सुरसरि के दो कूल भूल कर भी जो मिल ना पाये। दोनों तीरों को जोड़ सेतु उस पर इक राह बन जाये। राही तर जाये लघु सरिता राहें सब आसाँ हो जायें। नवनिर्माण भया जब मेरा रौनक देख सभी हरषाये। नर-पशु में कुछ भेद न जानूँ जो सवार पार हो जाये। वीरानी में दिन काटूँ मैं भूले से कोई नजर न आये। स्वर्णिम क्षणों को मनन करूँ जब मन मेरा हरषाये। मैं लघु सरिता पार उतारूँ प्रभु भवसागर पार कराये। रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर

आईना सामाजिक असमानता का- एक ,सामाजिक लेख

प्रस्तुत लेख करीब 10 वर्ष पूर्व लिखा गया था कमोवेश स्थितियां अभी भी ऐसी ही हैं कोई बदलाव नहीं आया हैं।क्योंकि इस प्रकार के समाचार अभी भी पढ़ने-सुनने को मिलते रहते हैं।लेख कुछ इस प्रकार है.................... आईना सामाजिक असमानता का           हाल के समाचार पत्रों में आई कुछ घटनाओं ने मुझे यह लेख लिखने को प्रेरित किया जो निम्नवत् हैं। 1- - हमीरपुर जिले के पचखुरा गाँव में खंगार(दलित) जाति की महिला का सिर तथा कथित ऊँची जाति के दबंग लोगों ने अपने घर के बाहर चारपाई पर बैठने और चारपाई से उठकर पैंलगी(पैर छूकर प्रणाम करना) न करने के अपराध में फरसे से भुट्टे की तरह काट डाला। दैनिक जागरण  12 जुलाई 2007 2- - कानपुर देहात,   थाना मंगलपुर अन्तर्गत गडि़या गाँव निवासी ऊँची जाति के दबंग माटीराम ने अनिल कुमार सविता से अपने घर पर चलकर बाल काटने के लिये कहा।उसकी सैलून की दुकान पर पहले से कुछ व्यक्ति बाल कटवाने के लिये इंतजार कर रहे थे।घर चलकर बाल काटने से मना करने पर माटीराम ने तलवार से अनिल का हाथ काट डाला। दैनिक जागरण  19 जुलाई 2007...

एक विचार

एक विचार बच्चियों व महिलाओं पर दुष्कर्म व अत्याचार सदियों से होते रहे हैं।परन्तु आज के सभ्य समाज में जहाँ महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही हैं।कुछ महिलायें तो उन्नति के चरम शिखर पर भी विराजमान हो गयी हैं।आज महिलायें बुद्धिजीवी, उच्चतम पदों व उद्योगपति सभी दिशाओं में अपनी छाप छोड़ रही हैं।इस परिवेश में बच्चियों व महिलाओं पर किये जा रहे दुष्कर्म व अत्याचार बर्बर युग की याद दिलाते हैं।जैसा कि अभी भी इस्लामिक देशों में हो रहा है।पिछले दिनों एक वीडियो में  एक महिला ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुझाव समाज को दिया है, जिसमें उन्होंने बच्चे को बचपन से ही मानवीय मूल्यों की शिक्षा,समझदारी व महिलाओं के प्रति सम्मानजनक व्यवहार आदि सिखाये जाने का संदेश दिया है।आज जब कहीं दुष्कर्म की घटनायें होती हैं तो मीडिया द्वारा उसे बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है।कई बार तो मीडिया खबरों के चलते दुष्कर्मी को अपने बचाव के लिये ढेर सारे सूत्र अनायास ही मिल जाते हैं।जिनके सहारे वह बच निकलता है।आज के बच्चे इंटरनेट के युग में पल-बढ़ रहे हैं जिसमें पश्चिमी सभ्यता का खुला व नंगापन दिखाया जाता है...

प्रश्नोत्तर- एक कविता

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प्रश्नोत्तर- एक कविता हर इक प्रश्न रखे है उत्तर पर ये कुछ प्रश्न निरुत्तर हैं। सुतायें पूछें जुल्म सहें कबतक मुक्ति कितनी दूर है। पितृ सम्पत्ति से कब देगा भैया अरु हक अपना मैं पाऊँगी। कब दहेज मुक्त शादी द्विवसनों में पीहर से पीघर जाऊँगी। रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर

बोझा और प्यार- एक कविता

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बोझा और प्यार- एक कविता कोई बोझा भारी प्यार नहीं जो पीठ में लादें अरु ढोते जाये। बोझा बना कर जो भी ढोयें उनकी सांसें फूल-फूल रह जायें। कल-कल बहती नदी प्यार है नख-शिख तक सबको नहलाये। प्यार तो है डोंगिया प्रिया-प्रीतम की डूब-डूब कर फिर उतराये। त्यागें कटुता कुटिल बोल प्रीत प्यार के फूल राह में विखराये। बहें बयारें प्रीत की निश-दिन तन मन सब पुलकित हो जाये। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर

ताला - एक चतुष्पदी कविता

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ताला - एक चतुष्पदी कविता लगे जबानों में ताले अपनी बात कहे ना कोय। दुष्कर्मों की झड़ी लगी अनाचार निस-दिन होय। थाती कितनी है धरी ताला का रंग ही बतलाय। झूरी की तो झोपड़ी वो टटियन से काम चलाय। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर

घंटाघर- एक कविता

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घंटाघर- एक कविता ऊँचा शहर में मेरा घर है चोटी आसमान से बातें करती। घंटाघर मैं ही कहलाऊँ मुझसे शहर की शान बढ़ जाती। महाकाय है मेरी काया सब घड़ियां चर्तुनैन सी लगतीं। चारों घड़ियां भीमकाय सी हर कोनों से हैं दिख जातीं। घड़ियों की सुइयों से बंधकर शहरियों की नींदें खुलतीं। मेरे घंटे के सुर सुनते ही दिनचर्यायें सबकी ढल जातीं। दफ्तर भेजूं मैं ही सबको छौने भी पाठशाला में जायें। ग्रहणी की दिनचर्या भी मुझसे ही बंध कर चल पायें। बदले शहर महाशहर में बदले कंक्रीट के जंगल छाये। ठहरी हुयी सभी हैं घड़ियां धूल सनी अब किसको भायें। बूढ़े बरगद जैसी जर्जर काया सबने है मुझको बिसराया। बदला समय हवायें बदलीं मैं हर मुठ्ठी में गया समाया। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर