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जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दो प्रेमी सागर तट पर-एक कविता

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दो प्रेमी सागर तट पर-एक कविता सागर तीर बैठ दो प्रेमी इक दूजे के नैनों में खो जायें। इस जग से हैं हुए बेखबर अपनी दुनिया में डूबे जायें। कश्ती उतराती आशाओं की नैनों में प्रेमसमुंदर लहराये। सागर में कश्ती है उतराये लहरें उथल पुथल कर जायें। इक दूजे की आँखों में खोये हुए प्रेम पाश में बँध जाये। आँखों में सजाये सपने सुनहले दूर गगन तक फिर आयें। प्रेम नाव में सवार हुए हैं दो प्रेमी जग सागर में उतराये। ज्वार समुंदर में लहरों का मन की कश्ती भी डगमगाये। सजे ख्वाब मन में दोनों के पर जग से डर कर रह जायें। खुली आँखों से देखें जो सपने पलकों में सिमटा रख जायें। इक दूजे के बाहुपाश में बँधे हुए सारे सपने सच हो जायें। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर

तिरंगा झंडा- एक कविता

तिरंगा झंडा- एक कविता अरमान सभी के फलें फूलें औ पुष्पित होयें, सब झंडे तले तिरंगे के। युवा बाल वृद्ध सब वतन के प्रहरी, हर जन जन की है शान तिरंगा। शान मे इसकी गुस्ताखी की करे जो जुर्रत,शमशान उसे सब पहुँचायें। मर मिटने का जज्बा है हर दिल में, वतनपरस्ती रग-रग में लहरायें। रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर

भारतमाता व गणतंत्र-एक कविता

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भारतमाता व गणतंत्र-एक कविता लाल चुनरिया पहने माता शेर सवारी कर आयें। माँ थामे हैं प्यारा तिरंगा दूर गगन तक लहराये। हम भारतवासी नित भारत माता को नमन करें। गणतंत्र हमारा भारी जग में दुनिया से ये न्यारा है। कुर्बानी अनगिनत सपूतों से आजादी को पाया है। प्राणपियारी है ये आजादी माटी को करते हैं वंदन। बाल-युवा वृद्धजन सबही भारतमाता के लाल हैं। ठौर ठौर में भरी हैं जोंकें रुधिर चूसतीं भारतमाता का। परदेशों में भरें तिजोरी कर बंदरबांट स्वदेशी दौलत का। दुश्मन से जो हाथ मिलाते सौदा करते पावन माटी का। आस्तीन के सांपों को खोजें फन कुचलें इन नागों का। अनमोल थात्ती आजादी की रहेगी युग युग तक कायम। करे प्रगति ये देश निरंतर हम तन मन अर्पण कर डालें। रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर

जयहिन्द -एक कविता

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जयहिन्द -एक कविता जननी प्यारी जन्म भूमि है देश हमारा जग से न्यारा। हिन्दुस्तानी देश की खातिर करम करें वो सबसे न्यारा। दुनिया के अस्सीम क्षितिज पर छा जाये ये देश हमारा। तिरंगा प्यारा देशी झंडा चहुँदिश गूँजे जयहिन्द का नारा। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर

भ्रमजाल का मकड़जाल- एक कविता

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भ्रमजाल का मकड़जाल- एक कविता मकड़ी तो उदर भरण खातिर ही तंतुजाल बुनजाती। निज भोजन की खातिर जाला बुन मकड़ी ललचाती। सर्वस्व चूस निर्जीव करे फिर ये शिकार को लटकाती। बेवसी शिकार की देखें फिर भी पर सब फंसते जाते। सबके छाया अज्ञानी परदा और कोई सबक नही लेते। नर कर्मों के बुनता तंतुजाल औरों को ही फँसाना चाहे। पर कोई नहीं फंद में आये वो खुद ही फँसकर रह जाये। पर नर ना लेवे कोई सबक खुद भ्रमजाल में फँस जाये। माया-मोह के बड़े जाल दरकिनार हम इनको कर जायें। पुण्य करें सत्कर्मों के सब बड़े जाल कट कट रह जायें। प्रभु ने जीवन बख्सा हमको सत्कर्मों से अमृत बरसायें। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर

कान- एक कविता

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कान- एक कविता कानों कान खबर उड़ती है तिल का ताड़ खड़ा करती है। अफवाहों की आग सुलगती चिनगारी दावानल बनती है। सुनते गुनते धुनते जाना पर सबको ना दिल से लगाना। पढ़ना लिखना वाजिब है पर जीवन में भी धारण करना। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर

क्या जाने ? -एक कविता

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क्या जाने ? -एक कविता जिसने देखी ना धूप कभी वो भुलभुल की गरमी क्या जाने ? जिसने खाया ना आम कभी वो टपका की खुशबू क्या जाने ? जिसने गाया ना गीत कभी वो सरगम की लय को क्या जाने ? जिसका हरदम हो पेट भरा वो सूखी रोटी की कीमत क्या जाने ? करिया अक्षर भैंस बराबर वो अनपढ़ सुलेख वर्तनी क्या जाने ? है कातिल हाथों में शमशीर लिये वह पीर परायी क्या जाने ? रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर

बाल श्रम- एक कविता

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बाल श्रम- एक कविता हाड़ मांस की मेरी सूखी काया मासूम बचपना मेरा खोया। भाग्य सितारा डूबा था जो निर्धन आँगन में जन्म लिया। मैं हाड़ तोड़ मेहनत करता फिर भी मालिक की घुड़की खाता। मैं जितना भी ज्यादा मेहनत करता पर उतना ही रगड़ा जाता। मेरी है जर्जर काया पर फिर भी मालिक को तरस नहीं आता। जननी-जनक मेरे प्यारे हैं पर उनका जीवन मुफलिसी में बीता। पाले हैं मैंने मन में ख्वाब बहुत पर उदर भरण भी करना है। है चाह मेरी खेलूँ खाऊँ औरों की माफिक शिक्षालय भी जाऊँ। शासन समाज का संबल मिल जाये मैं भी शिक्षित बन जाऊँ। सूट-बूट मैं भी पहनूँ कुछ तड़क भड़क में रह कर जीवन काटूँ। जिस माटी में मैंने जन्म लिया कुछ उसे भी उपकृत कर पाऊँ। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर

क्या जाने- एक कविता

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क्या जाने- एक कविता

धूप - एक कविता

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धूप - एक कविता भूलोक के स्वामी दिनकर, धरा में स्वर्ण रश्मियाँ बिखरायें। ज्येष्ठ बैशाख की कड़ी धूप, अगिन की ज्वालायें बरसाये। माघ पौष की शरद धूप, धरा से आँख मिचौली कर जाये। जन-जन की जब ढले उम्र, धूप पकाये केश श्वेत हों जाये। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर

बालिका की अभिलाषा- एक कविता

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बालिका की अभिलाषा- एक कविता तुम मेरा मत अपमान करो, हूँ भावी पीढ़ी की वाहक मैं। गर आज सँवारा गया मुझे, कल पूरी दुनिया बदलूँगी मैं। गया नकारा गर मुझको तो,जग मुझ पर ही थम जायेगा। बेटी बन आयी जग में, माँ दादी परदादी बन जाऊँगी मैं। हैं सपने बहुत मेरे मन में, उन सबको साकार करूँगी मैं। कुलदीपक की जननी बनकर,रोशन पूरा कुनबा कर दूँगी मैं। गर मुझपर इक उपकार किया,अनगिन उपकार करूँगी मैं। तन मन अनंत उर्जा से पूरित, अप्रतिम उड़ान भरूँगी मैं। वर्तमान इस कायनात की, अप्रतिम नव छटा बिखेरूँगी मैं। है दरकार आपके आशीषों की,बिन पंखों के उड़ जाऊँगी मैं। रचनाकार- राजेश कुमार ,  कानपुर