धूप - एक कविता

धूप - एक कविता
भूलोक के स्वामी दिनकर, धरा में स्वर्ण रश्मियाँ बिखरायें।
ज्येष्ठ बैशाख की कड़ी धूप, अगिन की ज्वालायें बरसाये।
माघ पौष की शरद धूप, धरा से आँख मिचौली कर जाये।
जन-जन की जब ढले उम्र, धूप पकाये केश श्वेत हों जाये।

रचनाकार- राजेश कुमारकानपुर

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