भ्रमजाल का मकड़जाल- एक कविता
भ्रमजाल का मकड़जाल- एक कविता
मकड़ी तो उदर भरण
खातिर ही तंतुजाल बुनजाती।
निज भोजन की
खातिर जाला बुन मकड़ी ललचाती।
सर्वस्व चूस
निर्जीव करे फिर ये शिकार को लटकाती।
बेवसी शिकार की
देखें फिर भी पर सब फंसते जाते।
सबके छाया
अज्ञानी परदा और कोई सबक नही लेते।
नर कर्मों के बुनता
तंतुजाल औरों को ही फँसाना चाहे।
पर कोई नहीं फंद
में आये वो खुद ही फँसकर रह जाये।
पर नर ना लेवे
कोई सबक खुद भ्रमजाल में फँस जाये।
माया-मोह के बड़े
जाल दरकिनार हम इनको कर जायें।
पुण्य करें सत्कर्मों
के सब बड़े जाल कट कट रह जायें।
प्रभु ने जीवन बख्सा
हमको सत्कर्मों से अमृत बरसायें।
रचनाकार- राजेश
कुमार, कानपुर
टिप्पणियाँ