बाल श्रम- एक कविता

बाल श्रम- एक कविता
हाड़ मांस की मेरी सूखी काया मासूम बचपना मेरा खोया।
भाग्य सितारा डूबा था जो निर्धन आँगन में जन्म लिया।
मैं हाड़ तोड़ मेहनत करता फिर भी मालिक की घुड़की खाता।
मैं जितना भी ज्यादा मेहनत करता पर उतना ही रगड़ा जाता।
मेरी है जर्जर काया पर फिर भी मालिक को तरस नहीं आता।
जननी-जनक मेरे प्यारे हैं पर उनका जीवन मुफलिसी में बीता।
पाले हैं मैंने मन में ख्वाब बहुत पर उदर भरण भी करना है।
है चाह मेरी खेलूँ खाऊँ औरों की माफिक शिक्षालय भी जाऊँ।
शासन समाज का संबल मिल जाये मैं भी शिक्षित बन जाऊँ।
सूट-बूट मैं भी पहनूँ कुछ तड़क भड़क में रह कर जीवन काटूँ।
जिस माटी में मैंने जन्म लिया कुछ उसे भी उपकृत कर पाऊँ।

रचनाकार- राजेश कुमारकानपुर

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