आईना सामाजिक असमानता का- एक ,सामाजिक लेख

प्रस्तुत लेख करीब 10 वर्ष पूर्व लिखा गया था कमोवेश स्थितियां अभी भी ऐसी ही हैं कोई बदलाव नहीं आया हैं।क्योंकि इस प्रकार के समाचार अभी भी पढ़ने-सुनने को मिलते रहते हैं।लेख कुछ इस प्रकार है....................
आईना सामाजिक असमानता का
          हाल के समाचार पत्रों में आई कुछ घटनाओं ने मुझे यह लेख लिखने को प्रेरित किया जो निम्नवत् हैं।
1--हमीरपुर जिले के पचखुरा गाँव में खंगार(दलित) जाति की महिला का सिर तथा कथित ऊँची जाति के दबंग लोगों ने अपने घर के बाहर चारपाई पर बैठने और चारपाई से उठकर पैंलगी(पैर छूकर प्रणाम करना) न करने के अपराध में फरसे से भुट्टे की तरह काट डाला।
दैनिक जागरण  12 जुलाई 2007
2--कानपुर देहात, थाना मंगलपुर अन्तर्गत गडि़या गाँव निवासी ऊँची जाति के दबंग माटीराम ने अनिल कुमार सविता से अपने घर पर चलकर बाल काटने के लिये कहा।उसकी सैलून की दुकान पर पहले से कुछ व्यक्ति बाल कटवाने के लिये इंतजार कर रहे थे।घर चलकर बाल काटने से मना करने पर माटीराम ने तलवार से अनिल का हाथ काट डाला।
दैनिक जागरण  19 जुलाई 2007
3--मालिकपुर गाँव, मुरैना(म0प्र0) निवासी दलित परिवार ने पड़ोसी के कुत्ते को रोटी देने का अपराध कर दिया।ऊँची जाति के पड़ोसी ने दलित पर कुत्ते को अछूत बनाने का आरोप लगाते हुए, अपना कुत्ता दलित के घर पर बाँध दिया।इसके साथ ही 15 हजार रुपयों की माँग कर दी।रुपया न देने पर जान से मारने की धमकी दी।
दैनिक जागरण  9 अगस्त 2007
4--अमेरिकी न्यूरो सर्जन डा0 कुमार बहुले यान चेमनकारी गाँव केरल निवासी हैं।उन्होंने 80.60 करोड़ रुपये दान कर गाँव की उन्नति में भागीदारी की।अछूत होने के कारण उन्हें बचपन में मन्दिर के पास से होकर जाने वाले रास्ते पर चलने की मनाही थी।
दैनिक जागरण  9 अगस्त 2007
         उपरोक्त घटनायें समान्य सोच-समझ वाले व्यक्ति के मन को विचलित कर देने के लिये पर्याप्त हैं।आज देश को आजाद हुए 60 वर्ष से अधिक बीत चुके हैं।प्रत्येक व्यक्ति अपना रोजगार,कारोबार चुनने के लिये स्वतन्त्र है।अपने जीवन स्तर को ऊँचा करने के लिये आजादी है। शिक्षा ग्रहण करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है।
           पुराणों में लिखी मनु व्यवस्था के अनुसार समाज चार वर्णों में बँटा हुआ था।जन्म के अनुसार जीवन यापन के लिये कर्म करना आवश्यक रहता था।उस वर्ण व्यवस्था के अनुसार राजा का पुत्र ही राजा हो सकता था,भंगी परिवार में पैदा होकर शिशु बड़ा होकर भंगी का ही कार्य कर सकता था। शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार कुछ ऊँची जाति के लोगों को ही था।बाकी सभी लोग अशिक्षा के घोर अंधकार में जीवन बिताने को मजबूर थे।वर्ण व्यवस्था से परे कोई सोच भी नहीं सकता था।यदि किसी ने ऐसा करना तो दूर यदि सोचना भी चाहा तो इससे भी गम्भीर परिणाम भुगतने को विवश होना पड़ता था।मेरा बचपन ग्रामीण परिवेश में बीता है।मैंने अपने बचपन में देखा और महसूस किया कि किस प्रकार से ऊँची जाति के व्यक्तियों के साथ नीची जाति के व्यक्तियों को कदम-कदम पर कठिनाइयों और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता था।ज्यादातर गाँवों में नीची जाति के लोगों के घर व बस्तियाँ गाँव के बाहर रखी जाती थीं। जिससे कि वह लोग समाज के अन्य लोगों के बीच रहकर तालमेल न कायम कर सकें।उनके पानी भरने के कुएं या तो अलग हैं,या फिर उन्हें कुएं के नीचे खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है।उनका ऊँची जाति के लोगों के साथ कुएं से पानी भरना दुश्वार है।उनके कुएं की सीमा में आते ही पूरे कुएं का जल अछूत हो जाता है।कुएं की फर्श पर चाहे कुत्ते-बिल्ली घूमते रहें,बैठे रहें या फिर गंदगी फैला कर चले जायें,लेकिन उससे कुएं के जल में कोई भौतिक या रासायनिक परिवर्तन नहीं होता है।लेकिन यदि नीची जाति का व्यक्ति कुएं की सीमा या फर्श को छू दे, तो पहले से रखा जल तथा कुएं का सम्पूर्ण पानी ऊँची जाति के लोगों के पीने लायक नहीं रह जायेगा । गाँव में तीज-त्यौहार ,शादी आदि के मौके पर यदि नीची जाति के व्यक्ति ने साफ-सुथरे नये कपड़े पहन कर दिख जाये तो तथाकथित सामन्ती व्यवस्था अन्र्तगत ऊँची जाति के व्यक्तियों के लोगों को नागवार गुजरेगा और येन-केन प्रकारेण लड़ाई-झग़ड़े पर उतारू हो जायेगा या फिर ऐसे काम को करने के लिये मजबूर कर दिया जायेगा कि जिससे उसके कपड़े खराब हो जायें।साफ-सुथरे कपड़े पहनने का मतलब है ऊँचे लोगों से बराबरी जो उन्हें किसी भी स्थिति में बर्दाश्त नहीं हो सकता है।आम बातचीत में जातिसूचक शब्दों का अपमानजनक ढंग से आदान प्रदान करना तो साधारण सी बात है। देश में दास प्रथा को समाप्त हुए कई दशक बीत चुके हैं।लेकिन गाँवों में यह बदस्तूर जारी है नीची जाति के लोगों को प्रजा कहा जाता है।नाई, कुम्हार, माली,मेहतर, कहार,मनिहार, दर्जी, भड़भूजा,चमार आदि अनेकों जातियों के लोगों को ऊँची जाति के लोगों के यहाँ शादी-ब्याह आदि मौकों पर आवश्यकतानुसार कार्य करने रहते हैं।और उन्हें प्रजा की भाँति कुछ मेहनताना भी अदा किया जाता है।शादी-ब्याह के कार्यक्रमों में उन्हें अन्य मेहमानों से अलग जमीन पर बैठा कर खाना दिया है वह भी सभी अन्य लोगों को खाना खिलाने के बाद।
         उपर्युक्त पहलीं घटना की यदि विवेचना की जाये तो समझ में आता है कि दलित महिलाओं की मान-मर्यादा इज्जत कुछ भी नहीं है।वह अपने घर के बाहर चारपाई पर नहीं बैठ सकती हैं। सामन्ती युग के समान उन्हें ऊँची जाति के लोगों के, घर के सामने के रास्ते से गुजरने पर पैंलगी(प्रणाम) करना होता है।यहाँ पर यह उल्लेख करना आवश्यक है कि उन्हें ऊँची जाति के लोगों के पैर छूकर प्रणाम नहीं करना होता क्योंकि नीची जाति के लोगों के छू लेने से इनका शरीर अपवित्र हो जायेगा । इसलिये उन्हें दूर खड़े रहकर धरती को छू कर माथे पर लगाकर पैंलगी करना होता है।यदि ऐसा नहीं किया तो फरसे सिर भुट्टे की तरह उड़ा दिया जायेगा।
           दूसरी घटना की यदि विवेचना करें,तो आज के सभ्य समाज में सभी लोग अपना कार्य ,रोजगार चुनने के लिये स्वतन्त्र हैं।उसी स्वतन्त्रता के तहत नाई अनिल अपनी सैलून की दुकान खोलकर लोगों के बाल काट कर अपना जीवन यापन कर रहा था।लेकिन तथाकथित ऊँची जाति के दबंग लोगों को यह बर्दाश्त नहीं था।दास प्रथा के अनुसार वह जब चाहें, जहाँ चाहें उन्हें अपने बाल कटवाने का अधिकार प्राप्त था।उसी के अनुसार माटी राम को सैलून की दुकान में इन्तजार करके बाल कटवाना गवारा नहीं था और उसने अपने घर पर चलकर नाई को बाल काटने के लिये मजबूर किया। ऐसा न करने पर उसने नाई के ऊपर हमला कर उसका हाथ ही काट डाला।
         तीसरी घटना की विवेचना की जाये तो देख पाते हैं कि मनुवादी व्यवस्था ने तो मनुष्यों को ही चार वर्णों में विभाजित किया था।लेकिन यहाँ तो जानवर की भी मालिक की जाति के अनुसार ,उसकी भी जाति व स्तर बदल जाता है।ऊँची जाति के मालिक के कुत्ते को पड़ोसी दलित ने रोटी देने का अपराध का दिया। दलित की रोटी खा लेने से ऊँची जाति के मालिक का कुत्ता ही नीची जाति का हो गया जबकि रोटी खाने के पहले कुत्ता ऊँची जाति का था।अतः जबरन दलित के घर बाँध दिया।गाँवों में ऊँची जाति व पैसे की हनक के आगे दलितों की कोई औकात ही नहीं है।उन्हें जब-तब अपनी मरजी के अनुसार धमकाया व मारा-पीटा जाता रहता है।क्योंकि उनका अपना तो कोई अस्तित्व ही नहीं है।गरीब दलित परिवार को तो खाने के लाले पड़े हैं।जिसे रोज कमाना और खाना है,जिस दिन रोजी न मिले उस दिन तो सम्भव है कि घर में चूल्हा भी न जले।उसने तो शायद अपनी जिन्दगी में हजार रुपये भी कभी हाथ में रखने का मौका न मिला हो।यह सब जानते हुए भी दबंग पड़ोसी ने कुत्ता दलित के यहाँ बाँधने के साथ 15 हजार रुपयों की माँग कर दी।साथ में यह धमकी भी दी कि रुपये न मिलने पर जान से मार दिया जायेगा,शायद यह निकट भविष्य में यह सच भी हो जाये क्योंकि आये दिन ऐसी घटनायें समाचार पत्रों में आती ही रहती हैं।
        चौथी घटना की विवेचना की जाये तो देख पाते हैं कि हमारा देश धर्म निरपेक्ष देश है।यहाँ सबको अपनी मन मरजी से पूजा-पाठ धार्मिकता निभाने की आजादी है।लेकिन आज के सभ्य समाज में अभी भी नीची जाति के लोगों का सार्वजनिक रास्तों का इस्तेमाल करना वर्जित है और अपराध की श्रेणी में आता है।यहाँ तो मन्दिर वाले रास्ते पर ही चलने की मनाही है। यदि गल्ती से या फिर जानबूझ कर उस रास्ते पर चलने की जुर्रत की तो फिर ऊँची जाति वालों द्वारा क्या कहर ढाया जा सकता है,इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।उसी परिवेश में पले बढे़ डा0 कुमार ने किसी प्रकार से अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण कर अमेरिका में भी अपने देश का नाम रोशन करते हुए धन का अर्जन किया।विदेश में रहते हुए उन्होंने अपने देश, गाँव की मिट्टी को विस्मृत नहीं किया और वहाँ रहकर अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखते हुए धन का संचय किया।विदेश से वापस आने के पश्चात अपने देश व गाँव की भलाई के लिये अपनी जीवन भर की कमाई 80.60 करोड़ रुपये खुशी-खुशी समर्पित कर दिये।
        कहने को तो समाज में न्याय व पुलिस व्यवस्था मौजूद व कार्यरत है,लेकिन कटु सत्य यही है कि यह सब भी ऊँची जाति के लोगों के ही साथ है।गरीब व नीची जाति के लोगों को अभी भी हेय दृष्टि से देखा जाता है।पुलिस के पास किसी प्रकार की शिकायत लेकर जाने पर प्रताड़ना व दुत्कार ही मिलती है।न्याय व्यवस्था अभी भी पैसे व ऊँचे रसूख वाले लोगों थाती व अधिकार है।धन-बल पर ही न्याय खरीदा जाता है वहाँ पर उपरोक्त जैसी घटनायें हो जाने पर कोई सुनवाई व न्याय पाने की उम्मीद करना नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसा है।यहाँ पर यह उल्लेख करना आवश्यक है कि इस प्रकार की घृणित मानसिकता वाले लोगों की संख्या ज्यादा है।विशेष रूप से गाँवों-कस्बों में जहाँ शिक्षा की किरण अभी भी आशा के अनुरूप नहीं पहुँची है।जिसकी वजह से ऊँची जाति के लोग अभी भी मनुवादी विचार धारा के साथ जी रहे हैं।दलित समाज के लोग अभी भी अपना शिक्षा का स्तर नहीं उठा सके हैं जिसके पीछे मुख्य कारण गरीबी की अधिकता,रोजी-रोटी की समुचित व्यवस्था का अभाव है।गरीबों को अभी भी उनके अधीन रहकर जीवन बिताना पड़ता है।समय की आवश्यकता है कि दलित समाज षिक्षा के उच्च स्तर को प्राप्त करते हुए समाज में प्रशासनिक ,राजनैतिक, व्यावसायिक व अन्य सभी दिशाओं में अपनी संतोषजनक भागीदारी करें।जहाँ पर सामाजिक समस्याओं के निराकरण हेतु समुचित निर्णय लेने व क्रियान्वयन जैसे अधिकार प्राप्त करते हुए सामाजिक उत्थान हेतु कार्य करें।विगत काल में अपने समाज के साथ हुए अन्याय को बदले की भावना से कार्य न करते हुए डा0 कुमार की तरह अपने देश व समाज को उच्च शिखर पर स्थापित करने का प्रयत्न करें ।
       मैंने इस लेख के माध्यम से अपने हृदय के उद्गार व्यक्त करते हुए वर्णित सत्य घटनाओं को दर्शाते हुएग्रामीण व शहरी परिवेश में ऊँच-नीच की समस्याओं से जूझते हुए दलित समाज पर होने वाले रोजमर्रा के अत्याचारों का आईना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
-राजेश कुमार, कानपुर

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