घंटाघर- एक कविता
घंटाघर- एक कविता
ऊँचा शहर में मेरा
घर है चोटी आसमान से बातें करती।
घंटाघर मैं ही कहलाऊँ
मुझसे शहर की शान बढ़ जाती।
महाकाय है मेरी
काया सब घड़ियां चर्तुनैन सी लगतीं।
चारों घड़ियां
भीमकाय सी हर कोनों से हैं दिख जातीं।
घड़ियों की
सुइयों से बंधकर शहरियों की नींदें खुलतीं।
मेरे घंटे के सुर
सुनते ही दिनचर्यायें सबकी ढल जातीं।
दफ्तर भेजूं मैं
ही सबको छौने भी पाठशाला में जायें।
ग्रहणी की
दिनचर्या भी मुझसे ही बंध कर चल पायें।
बदले शहर महाशहर में
बदले कंक्रीट के जंगल छाये।
ठहरी हुयी सभी
हैं घड़ियां धूल सनी अब किसको भायें।
बूढ़े बरगद जैसी जर्जर
काया सबने है मुझको बिसराया।
बदला समय हवायें
बदलीं मैं हर मुठ्ठी में गया समाया।
रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर
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