ममतामयी प्रकृति बाग बगीचे जंगल काटे कंकरीट के जंगल छाये। दड़बे जैसे नीड़ सजे साँसे घुट-घुट कर रह जायें। घुटन भरी हैं साँसें सबकी घुटन भरी हैं सब राहें। घुटन भरा है जीवन औ जहरीली हो गयी हवायें। प्रगति होड़ में ऐसे डूबे भया प्रदूषण है चहुँ ओर। बहें बयारें प्रातकाल की रवि किरणें सोना विखराये। ओसकणों के मोती बिखरे कुछ तो संचित कर लायें। जीवन की आपा धापी कुछ पल सुकूं भरे मिल जायें। जीवन जीने की खातिर कुछ उर्जा संचित कर लायें। खुली हवा में जीना सीखें तनमन पुलकित हो जाये। जननी प्रकृति का आँचल थामें जीवन सुखी बनायें। कुछ ऐसी विधा निकालें वसुधा हरी भरी हो जाये। रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर