मेल-जोल- एक कहानी

मेल-जोल

रतनजी पार्क की सीमेट की बेंच पर बड़े ही अनमने भाव से बैठे हैं।सूर्योदय हुए काफी समय बीत चुका है।सूर्यदेव अपना आज का सफर काफी आगे बढ़ा चुके हैं।भोर की बेला में मुँह अंधेरे घर से निकलने वाले रतनजी नियमित रूप से प्रतिदिन हवाखोरी के लिये निकलते थे।प्रशासनिक अधिकारी के बड़े ओहदे से उन्हें सेवानिवृत्त हुए करीब 15 वर्ष बीत चुके हैं।घर वापस जाने की कोई उन्हें जल्दी महसूस नहीं हो रही थी।आखिर हो भी क्यों,कोई घर में उनका इंतजार करने वाला तो बैठा नहीं है।उनकी पत्नी सावित्री चार दशकों का दाम्पत्य सुख प्रदान कर करीब 5 वर्ष पहले इस संसार सागर से विदा हो गयीं थी।जैसा नाम वैसा ही पातिव्रत धर्म निभाती हुई अंत में बुझते दीपक सी उनसे विदा मांग ली थी।रतनजी ने भरे गले से न चाहते हुए भी उन्हें विदा कर दिया था।और वह कर भी क्या सकते थे, विदा नहीं भी करते तो क्या वह रुकने वालीं थी।सामने यमदूत अपना पाश लिये खड़े थे जो ले जाने की बेसब्री दिखा रहे थे।वे निर्मम यमदूत उनके लिये यह काम किसी कूड़गाड़ी के चालक से अधिक नहीं था जो रोज सबेरे कूड़ा लेने के लिये सीटी बजाकर आवाज देता है, और फिर अपनी बेसब्री का इजहार करता है।यमदूतों को अपने नियमित कर्तव्यों के तहत सावित्री को ले ही जाना था।जिसमें रतनजी के हस्तक्षेप का कोई अर्थ ही नहीं था।घर में पत्नी के गुजर जाने के बाद बेटा बहू व तीन वर्षीय नाती अँशु ही रह गये थे।घर की स्थिति उनकी बीती प्रशासनिक जिंदगी जैसी थी।जहाँ कहीं किसी के लिये कोई समय नहीं था।बेटा बहू दोनों ही काम काजी थे जो अपने अपने दफ्तर के समयानुसार घर छोड़ देते थे।नाती अँशु को सँभालने के लिये सावित्री थी।अब उसने भी घर से विदा लेकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति पा ली थी।शुरुआत के कुछ दिनों में रतनजी ने अँशु को रखने सँभालने की जिम्मेदारी ओढ़ ली थी।अँशु की जिम्मेदारी से उन्हें करीब दो वर्ष पहले ही फुरसत मिल गयी थी।क्योंकि वह पाँच वर्ष का होते होते स्कूल जाने लगा था।घर पर रह कर कितना अखबार पढ़ें, कितना टी वी रेडियो देखे सुनें।घर पर कोई उनसे बातचीत करने वाला ही नहीं था।अतःवह रोज ही अनमने ढंग से पार्क में ज्यादा से ज्यादा समय रहने का प्रयास करते थे।सूरज ऊपर चढ़ आया है धूप तेज है तो क्या हुआ।ठंडी पवन के झोंके,पक्षियों का कलरव,सड़क पर आती जाती गाड़ियों का शोरगुल यह किसी आकर्षण से कम तो नहीं था।रतनजी उदास मन से घर को वापस चल पड़े।घर में आर्थिक समपन्नता चरम पर थी।बेटा बहू अच्छे ओहदों पर कार्य कर रहे थे।उन्हें स्वयं भी पेंशन के रूप में अच्छी खासी रकम प्रति माह प्राप्त हो जाती थी।सेवानिवृत्ति पर मिली अच्छी खासी रकम बैंक खातों में जमा थी।कभी कभार बेटे बहू से इस बारे में जिक्र करना भी चाहा तो वे अनसुना कर देते थे।आखिर उन्हें उस रकम की आवश्यकता ही कहाँ थी।रतनजी ने नौकरी करते समय ही यह 400 वर्ग गज की कोठी बनायी थी, जिसमें सुख सुविधाओं का सभी सामान करीने से जुटाया व सजाया हुआ था।पर इस सब का क्या वजूद जब मानसिक खालीपन की भरपाई असम्भव हो।एक सुबह ऐसे ही रोज की तरह पार्क की बेंच पर बैठे थे।पार्क के दूसरे कोने पर एक कृशकाय श्वेत केशों वाली एक वृदध महिला बैठी हुई थी।ऐसा लगता था कि उस महिला का भी उन्हीं की तरह घर पर कोई इंतजार करने वाला नहीं है।वह महिला भी उस एकाकी पार्क में थोड़ी थोड़ी देर में रतनजी पर निगाह डाल कर मुँह फेर लेती थी।इसी प्रकार रतनजी भी कुछ पलों के लिये उस महिला पर नजर डाल लेते थे।कहा जाता है कि प्रत्येक मनुष्य के चेहरे व शरीर से कुछ अदृशय किरणों का प्रस्फुटन अनवरत होता ही रहता है।ये किरणें आसपास के वातावरण में टकराती व फैलती रहती हैं।यह किरणें मनुष्य के स्वभाव के अनुसार अच्छी व बुरी दोनों ही प्रकार की होतीं हैं।जो अपनी प्रकृति के अनुसार सामने के माहौल से तालमेल बिठाने का प्रयास करती रहती हैं।उदाहरणस्वरूप इन्हीं के माध्यम से शराबी व्यक्ति शराबी की खोज कर लेता है तथा सत्संग की इच्छा रखने वाला व्यक्ति सत्संगी से मिलकर सत्संग की ओर अग्रसर हो जाता है।रतनजी व उस अनजान महिला का पार्क में अपनी अपनी बेंचों पर बैठने का सिलसिला जारी था।जैसा कि ऊपर अदृशय किरणों व उनके खिंचाव के बारे में बताया उसी आकर्षण के तहत एक दिन रतनजी ने चुप्पी तोड़ने का विचार किया और उस महिला के निकट गये।कुछ नानुकुर संकोच के साथ फिर बातों का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।दोनों ही तरफ सब्र का बांध सैलाब में बदल गया था।उस महिला का नाम मारिया था।मारिया रतनजी की हम उम्र महिला थीं।उनके एक बेटा व एक बेटी थी, जिनकी शादियाँ काफी पहले हो चुकी थीं।बेटा व बेटी किसी दूसरे शहर में अपने अपने परिवारों के साथ रहते थे।मारिया के पति का करीब दस वर्ष पूर्व देहांत हो गया था।मारिया के पति का काफी बड़ा कारोबार था, जिसमें वह स्वयं भी हाथ बंटाया करती थीं।बेटा बेटी ने पति के कारोबार में कोई रुचि नहीं दिखायी।वह दोनों नौकरी करने के इच्छुक थे जिसमें महीने के अंत में एक मुश्त रकम पूरे महीने के खर्च के लिये मिल जाया करती है।उन्हें कारोबार के गणित के तमाम सुलझे अनसुलझे सवालों में उलझना जंजाल से पार पाने जैसा लगता था।आराम से महीने भर दफ्तर में हाजिरी लगाओ काम करो।वेतन मिलने पर संतुष्टि से जीवन व्यतीत करो।मारिया उम्रदराज होने के बावजूद भी वह आधुनिक विचार धारा वाली महिला थीं।बेटा बेटी के परिवार के साथ रहना उनके जीवन में दखलंदाजी करने जैसा लगता था।अतः वह उन्हें स्वतन्त्र रखकर स्वयं भी स्वतन्त्र रहना पसंद करती थीं।वैसे भी वह जिस क्रिशचियन समाज से संबंध रखती थीं वहाँ पर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।उनके पति ने कारोबार से काफी पैसा कमाया हुआ था, जो उनके मरने के बाद मारिया को स्थानान्तरित हो गया था।इस शहर में मारिया के नाम से एक बड़ी कोठी भी थी।मारिया के बेटा बेटी भी अपनी नौकरियों में संतोषजनक पैसा कमा रहे थे और उन्हें माँ की कोठी दौलत से कोई सरोकार नहीं था।चार-छह महीनों में वह अपनी माँ से मिल जाया करते थे।मारिया भी बीच-बीच में बच्चों की ऊब लगने पर उन लोगों से मिल आया करती थीं।ईश्वर ने उन्हें स्वस्थ,सुंदर व अच्छा शरीर बकसीस के तौर में दिया था।वह अपनी जवानी में गोरी –चिटटी,भरे पूरे इकहरे बदन की महिला रही होंगी।इस उम्र में भी उनके आकर्षण में कोई विशेष कमी नहीं दिखती थी।इस प्रकार रतनजी व मारिया एक दूसरे के काफी करीब आ चुके थे।उम्र की इस ढलती साँझ में जवानी के रंगों जैसी कोई बात नहीं थी।फिर भी उन दोनों का एकाकी जीवन जो रिक्तता से पूर्ण था।उसमें काफी कुछ संतुष्टि का भाव आ गया था।सुबह-शाम पार्क में एक दूसरे के साथ कुछ समय बिता कर उनहें जीवन के अपार आनंद की अनुभूति हो रही थी।मारिया सोचती थी मेरे पास जो भी धन दौलत कोठी है उसका भविष्य में क्या होगा।बेटा बेटी को उससे कोई सरोकार नहीं है।मेरे मर जाने के बाद वह सब लावारिस हो जायेगा।कोठी में शायद भूत ही रहने लगें, इन सब विचारों से वह सिहर उठती थीं।पति के साथ रहकर तिनका तिनका जोड़कर इस कोठी को बनवाया था।जिसे वह अपनी तीसरी संतान की तरह मानती थीं।दो संतानें तो दूर बसी हुई थीं, लेकिन यह तो उसके दिल के करीब पास में ही थी।पति भी साथ छोड़कर यीशु से जा मिले थे।लेकिन इसने साथ नहीं छोड़ा था तथा हरदम अपना साया प्रदान कर सच्ची संतान की तरह अपनी जिम्मेदारी निभा रही थी।अंत में उसने एक मुश्त निश्चित फैसला करते ङुए उस कोठी व दौलत को रतनजी के नाम कर दिया।रतनजी इस सबसे बिलकुल अनजान थे।रतनजी के मन में भी मारिया जैसे ही विचार उमड़ रहे थे।उनकी कोठी में तो बेटा परिवार के साथ रह रहा था।लेकिन बैंक में जमा रकम से उनका कोई सरोकार नहीं था।रतनजी को लगता था कि बैंक में वह रकम बेमतलब पड़ी हुयी है।मारिया तो उम्र के अनुसार बूढ़ी भी नहीं दिखती है और उसके पास जीने के लिये मुझसे ज्यादा समय है।अतः रतनजी ने अपनी जमा पूँजी मारिया के नाम करने का दृढ़निश्चय कर लिया।एक दिन रतनजी ने वसीयत तैयार करा कर पूरी रकम मारिया के नाम कर दी।मारिया और रतनजी इस सबसे बिलकुल ही अन्जान थे क्योंकि इस बारें में उनहोंने आपस में एक दूसरे से कभी चर्चा ही नहीं की थी।उन दोनों का आपस में मिलने जुलने का सिलसिला जारी रहा।दोनों ही अपने अपने ढंग से एक दूसरे के जीवन के एकाकीपन के अँधेरे कोनों को रोशन कर रहे थे।उम्र के लिहाज से युवावस्था जवानी की आवश्यकतायें तो कब की तिरोहित हो चुकी थीं।फिर भी जीवन नैया को आगे बढ़ाने के लिये वह दोनों पूरी तरह से एक साथ रहना चाहते थे।जिससे सुख दुख के लम्हों को आपस में पूरी जिम्मेदारी से बाँट सकें।धन दौलत तो एक दूसरे को पहले ही सौंप चुके थे।लेकिन उन दोनों ने इस अहम फैसले पर बच्चों की राय जानना उचित समझा।दोनों ने ही अपनी संतानों से इस समबन्ध में चर्चा की।लेकिन यह क्या वह लोग तो भड़क उठे।उन्होंने कहा कि उम्र के इस आठवें दशक में यह सब करने की कया आवशयकता है।आखिर हम लोग जिस समाज में रहते हैं उसे क्या जवाब देंगे।फिर आप दोनों तो अलग अलग धर्म के यानि कि विधर्मी हैं।उन लोगों ने रतनजी व मारिया के प्रस्ताव को पूरी तरह से नकार दिया, और यहाँ तक कहा कि इस प्रस्ताव की तामीली का भरसक विरोध कर इसे असम्भव बना देंगे।इधर मारिया रतनजी भी अपने निर्णय पर कायम थे।उन दोनों ने कोर्ट में कोर्ट मैरिज के लिये अर्जी दाखिल कर दी।जब उनकी संतानों को मालूम हुआ तो उन्होंने इसके खिलाफ अपने वकील के माध्यम से शादी रुकवाने की अपील दायर कर दी।उम्र के इस मोड़ पर रतनजी, मारिया व उनकी संतानें आमने सामने एक दूसरे के विरुदध मोर्चा बनाये खड़े थे।आखिर एक दिन कोर्ट में सुनवायी का वक्त आ गया।कोर्ट ने दोनों पक्षों की बात ध्यान से सुनी।कोर्ट ने उनकी संतानों से प्रश्न किया कि आपको अपने माता पिता से कोई तकलीफ है, तो उनहोंने संतुष्ट होने का उत्तर दिया।कोर्ट ने फिर उनसे प्रश्न किया कि आपके माता पिता कभी आपकी स्वतन्त्रता में बाधक बने, कभी उन्होंने आपके जीवन में दखलंदाजी की।इस पर भी उन्होंने पूर्ण संतुष्ट होने का उत्तर दिया।तब कोर्ट ने उनसे पुनः प्रश्न किया कि जब आप लोगों को अपने माता पिता से कोई तकलीफ नहीं है तो मात्र समाज व धर्म के लिये डर रहे हैं।उन्होंने हाँ में उत्तर दिया।कोर्ट ने पुनः उनसे पूछा कि यदि आपके माता पिता उम्र के इस अन्तिम पड़ाव में कुछ खुशी हासिल कर अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो आप लोग व समाज उन्हें ऐसा करने से रोकने वाला कौन होता है।जब वह दोनों एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे थे तब तो उनके खालीपन को भरने कोई नहीं आया था।उनको शादी करने से रोकना व्यकतिगत स्वतन्त्रता के मूल अधिकारों का हनन है।ऐसा कह कर कोर्ट ने उनकी अपील को सिरे से खारिज कर दिया।साथ ही रतनजी व मारिया की कोर्ट मैरिज को कानूनी जामा पहनाते हुए स्वीकार कर लिया।अब मारिया व रतनजी कानूनी रूप से एक दूसरे के साथ रह सकते थे।    

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