मानव अंगों की तिजारत- एक कविता


मानव अंगों की तिजारत
ऋषि दधीचि ने परस्वारथ में, निजकाया का दान किया।
बज्र बना ब्रह्मास्त्र बना,और उनसे दुष्टों का संहार हुआ।
प्रभु ने देकर सुंदर काया ,इस जग में सबको भेज दिया।
मानवता रथ सभी खींचकर, सब अपना हैं जीवन जीते।
खायी कसमें मानवता की,मिली डिग्रियाँ जनसेवा में।
कसमों को कर दरकिनार, ये आज कसाई हैं बन बैठे।
कुछ नरभक्षी निज स्वारथ में,मानवअंगों का व्यापार करें।
काटें मजलूमों के किडनी लीवर,उनका जीवन महरूम करें।
बने फरेबी देकर धोखा,खूनी और दरिंदे हैं बन बैठे।
लालच स्वारथ में बने वो अंधे,मौत के मुँह में उन्हें डालते।
ओढ़ फरिश्तों का चोला,ये गर्दन पर हैं छुरी रेतते।
मानवता के ये हैं दुश्मन,इनकी तृष्णा पर वार करो।
पोलें खोलें करें उजागर,इन दुष्टों को मिले सजायें।
इनकी सजा मौत से बदतर, तिल-तिल कर इनको तड़पायें।
रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर

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