वैश्विक परिवेश- एक कविता
वैश्विक परिवेश
भावनायें विश्वबंधुत्व की, जग से हो रही तिरोहित हैं।
आतंकवाद अलगाववाद ,की पनप रही विष बेलें हैं।
जग आंगन को विषबेलों ने,आगोश में लिया समाया है।
आसन मानवता का डोल रहा, साम्राज्यवाद ने घेरा है।
वट वृक्षों की छाँव तले,फुलबगियां नहीं पनपती हैं।
सबके हाथों में बंधन बंधा हुआ,निजता स्वतंत्रता बाधित है।
दिल में कुछ करने की चाह मगर,पर राहें सब अवरोधित हैं।
मानुष मानुष में हैं भेद बहुत,आपस में सब आशंकित हैं।
अश्कों से उठ गया भरोसा, मुस्कानें सब आतंकित हैं।
ऊँचे चढ़ने की चाहत में,
हम गर्त की ओर अग्रसित हैं।
मन में भरा कपट द्वेष,बेइमानी नाइंसाफी मेरी ताकत है।
दुनिया में गर चाहें अमन चैन,दिल में भाईचारा की चाहत है।
कथनी करनी हो भेदरहित,इक सुर में सुर सभी मिलायेंगे।
आओ मिलकर सब बहन-भाई,मल मल कर मन को धोयेंगे।
रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर
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