भोर की किरणें- एक कविता
भोर की किरणें- एक कविता
भोर हुयी लालिमा
छायी निज किरणें दिनकर फैलाये।
निकले रथ पर सूर्य
देव प्रकाशमान चहुँदिश हो जाये।
ममतामयी प्रकृति
का आंचल दूर क्षितिज में लहराये।
हरियाली के बिछे
गलीचे मोती ओसबिंदु के बिखराये।
हेम राशि धरा पर
बिखरी शोभा वरन नहीं कर जाये।
राह निहारतीं
सूनी-सूनी कहीं मुसाफिर नजर ना आये।
नजर जाये दूर
जहाँ तक नजर में सूनी राहें ही आये।
बीती निशा नींद
से जागे नवउर्जा को संचित कर लाये।
तज आलस कुछ कर्म
करें पल-पल जीवन बीता जाये।
कल के जो रह गये
काज सब आज पूर्ण वो हो जाये।
रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर
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