दिव्यांग जन- एक कविता
दिव्यांग जन- एक कविता
बीती निशा उदय भये
दिनकर सुरमई सुबह गुलजार हुयी।
दिव्यांग चला
मिलने दिनकर से आशीषों की बरसात हुयी।
तन ही मेरा दिव्यांग
हुआ फिर भी मन ऊँची उड़ान भरे।
जो हैं दुर्बल मन
सबल तनधारी सब वसुघा के भार बने।
दिव्यांग सभी बलवान
बनें गर समाज का संबल पा जायें।
मन में दिव्यांगता
छा जाये फिर सुंदर तन दुर्बल हो जाये।
सात-पाँच की लाठी
भी इक जन का बोझा हो जाती है।
बोझ अगर सब मिल
बाँट चले राहे आसां बन जाती है।
इक पैर बिना
अरूणिमा एवरेस्ट भी फतह कर जाती है।
हौसलों की ऊँची
उड़ानों से दिव्यांगता भी हार जाती है।
रचनाकार- राजेश
कुमार, कानपुर
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