महानगर - एक कविता
महानगर - एक कविता
मैं हूँ इक महानगर, पांव पखारे
सागर मेरे।
अंतर्तम मेरा है जलधि अथाह
जन लहराये।
चमक दमक रंगीन भरी, चमचमायी
हैं राहें।
महल-दुमहले हैं ऊँचे,ये गगन
चूमने हैं आये।
आकांक्षाओं से सराबोर, जन-जन
की इच्छायें।
लिपे-पुते मेरे आनन में, ढक
डाली कुरूपता है।
यानों मोटर रेलों का, चहुँ
ओर शोर मचता है।
चमचम निज अंतस में, हैं दफन
अनंत कराहें।
खेत खलिहान नदी नाले, पोखर
झील सरोवर।
झोपड़ियां पर्वत पहाड़, बाग
बगीचे सब जंगल।
आहें उजड़ें जन जन की,सब मैंने हैं दफना डाले।
अंतर्तम के कोलाहल ने,लूटा
है मेरा अमन चैन।
रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर
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