ताजमहल एक प्रेम प्रतीक- एक कविता
ताजमहल एक प्रेम प्रतीक
प्राण प्रिया मन में बसें चाहत
का ताज सजे दिल में ।
प्रीति की भाषा सब कोई जाने
नैनों से इसको पहचानें।
प्रिया सभी मुमताज सरीखी पर
हर कोई शाहजहाँ नहीं।
चाहें प्रिय का ताज बनाना
पर सब यहाँ शहंशाह नहीं।
दिल में मुमताज सजाये पर चूल्हे-चक्की
में हैं पिसते।
इसका जग में बाजे डंका दरश ताज
को हर कोई तरसे।
ठहरे कुछ वो खुशनसीब जग के हैं
जो तेरा दीदार करें।
जग का प्रेमप्रतीक ताज है खायें
कसमें इसकी छाँव तले।
जाति धर्म मजहब के बन्धनों
से तो इसको ही दूर रखें।
निज सत्कर्मों से बने ताज अपना नाम अमर कर जायें।
निज सत्कर्मों से बने ताज अपना नाम अमर कर जायें।
सत्कर्मों के ताजों की बरखा
फिर ये गिनती खत्म ना हो।
बीज प्रीति के जीवन में बोयें
जग में भ्रातृभाव छा जाये।
रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर

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