अन्नदाता- एक कविता


चित्र काव्य समारोह


बन सुरसा जनसंख्या मुँह खोले धरती शमशान करे जाये।
लीले खेत खलिहान बनी ये दानव अमराई भी लीले जाये।
झीलें ताल तलैया लीले हमने सब जीवन धन लीले जाये।
नीर पी गये क्षीर पी गये सगरी धरती नमकीन कर गये।
गटके उपवन जंगल सब वसुंधरा को वसनहीन कर गये।
झरने नदियां पी डालीं अरु नाली में ये तब्दील कर गये।
त्राहिमाम रोती है वसुधा सब जीवन सामान लील गये।
गगन पिया पाताल पी गये अन्नदाता का लहू पी गये।
पुष्प वाटिका वन उपवन की सुरभि सब नाश कर गये।
पालनहार हमारे प्रभुवर अन्नदाता विश्वम्भर तुम हो।
धरती की छाती को चीरें दिन दिन भर रवि ताप सहें।
निज स्वेदकणों की माला पहने स्वर्ण बीज ये उपजायें।
हिम-तापवस्त्र के दाता रवि पावस बरखा बूंदों से नहलायें।
धरतीपुत्र करें श्रम निशवासर जनजन का पोषण हैं करते।
निज तन औ क्षुधा दहन कर सब जन का उदर हैं भरते।
ये हैं मातपिता से गुरुतर हम सब साष्टांग नमन हैं करते।

रचनाकार- राजेश कुमार,  कानपुर

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