एक महाशहर- एक कविता


एक महाशहर
मैं हूँ एक शहर, एक महा शहर।
मैं हूँ एक महा दानव, मेरा मुँह सुरसा जैसा।
मेरा पेट कुम्भकर्ण का, एक ब्लैक होल
जिसमें सब कुछ समाये, फिर भी रहे खाली का खाली।
मेरे पेट में समाये, ना जाने कितने शहर।
कितने गाँव,कितनी बस्तियाँ।
खेत-खलिहान, बाग-बगीचे फुलवारी।
नदी नाले झरने, झीलें पोखर तालाब।
मेरे मुँह में समाते, भंडार अनाज सब्जियों के।
फल-फूल, दूध दही मक्खन।
मैं छीन लेता, मासूमों का निवाला।
उनकी हँसी-मुस्कान, उनका बचपन।
उनके हक का सारा सामान,
उनके माँ-बाप, उनकी सारी हसरतें।
मेरे मुँह में जाते, गाँव के नर-नारी।
मैं छीनता जवानी, कर देता सबको बूढ़ा।
मेरे पैर महादानव जैसे,बड़ी-बड़ी चिमनियाँ।
मोबाइल टावर, बिजली के खम्भे,
गगनचुम्बी इमारतें,माइक्रोवेव टावर ।
बदले में मैं मुँह से उगलता, धूल-धुवाँ, प्रदूषित हवा।
वातावरण में जहर घोलता, नदियाँ बनायीं गन्दा नाला।
उन्नति प्रगति का क्रूर परिणाम, मेरी साँसों में अनन्त शक्ति।
सबको मैं जबरन खींच लेता, लपेट लेता अपना यमपाश।
चूस लेता पूरा रक्त, और निकाल देता सबका दम।

रचनाकार- राजेश कुमार,  कानपुर

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