जीवन-सार-एक तथ्य
जीवन-सार
बहुत समय पहले बाबाजी की मृत्यु हुयी
थी।उस समय मेरी उम्र मात्र 12 वर्ष की थी।बाबाजी को सभी लोग बापू कह कर पुकारते
थे।तब बापू के नाम के शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम था।तब जीना मरना क्या होता है यह
सब समझ से परे था।बाबाजी की मृत्यु के 40 वर्षों बाद पिताजी की मृत्यु हुयी,तब
मेरी उम्र 52 साल की थी।बाबाजी व पिताजी की मृत्यु के दौरान के 40 वर्षों में इस
संसार के बारे में काफी कुछ जानने समझने का समय मिला।पिताजी की मृत्यु के समय लगता
था कि अभी तो अपने पास कम से कम 30 वर्ष का जीवन और है।इन तीस वर्षों में जम कर
जियो।जीना मरना तो प्रकृति के दो पहलू हैं जिनकी सत्यता से कोई भी बच नहीं
सकता।जीवन मरण तो कपड़े बदलने जैसा है।आत्मा ने पुराने कपड़े उतार फेंके एक शरीर
की मृत्यु हो गयी, आत्मा ने नये कपड़े धारण कर लिये तो एक नया जीवन का प्रारम्भ हो
गया।लेकिन यह सब तो किताबी ज्ञान की तरह है जो पढ़ने, सुनने व सुनाने में ही अच्छा
लगता है।जब स्वयं के ऊपर बीतता है तब उस सत्य की कड़वाहट से परिचय होता है।जिस
प्रकार जलते हुए दीपक का तेल क्षण प्रति क्षण घटता जाता है तो उसके बुझने का समय
नजदीक आता जाता है।उसी प्रकार क्षण प्रति क्षण मृत्यु की आहट तेज कदमों के साथ
नजदीक आती महसूस होने लगती है।दिल की धड़कने धौंकनी की गति से चलती महसूस होने
लगती हैं।पर हम क्यों मृत्यु का इंतजार करते हैं हर पल उसका इंतजार करते करते अपने
पास उपलब्ध सारे पलों को क्यों गंवाँ दें।आखिर दीपक ज्योतिर्मय है उन ज्योतिर्मय पलों
का अधिकाधिक उपयोग सामाजिक पारिवारिक कल्याण करने में बितायें और हँसते हँसते
प्रसन्न मुद्रा में लोगों की सद्भावनाओं के साथ इस जीवन से विदा लें।यही जीवन सत्य
है यही जीवन सार है।शुभास्ति......
राजेश कुमार

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