अखबार- एक कविता
अखबार
भोर सबेरे सूरज उगता सबको इंतजार
मेरा है रहता।
नव नित रोज कलेवर सजता
दैनिक मैं हूँ कहलाता।
नर-नारी और बूढ़े-बच्चों हूँ
मैं सबका मैं राज दुलारा।
कीमत चुटकी भर ही लेकर अंजुरियों
भर खबर लुटाता।
इक दिन का है मेरा जीवन उसको
भी मैं जम कर जीता।
कड़वी खट्टी-मीठी खबरें
नीलकंठ बनकर मैं रखता।
इक दिन का बन बादशाह फिर
मैं हूँ रद्दी बन जाता।
दुनिया भर का लेखा-जोखा नित
नित संचित कर रखता।
समता का मैं धुर रक्षक हूँ
राजा रंक में भेद न करता।
चाहे लघु जीवन मिल पाये पर
उसको भी सफल बनाना।
रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर
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