छुपे भेड़िये- एक कविता

छुपे भेड़िये
मात पिता के लाड़ले छौने,पल पल देखें हर्षित होते।
तिनका तिनका जुटा जुटाकर,पंछी अपना नीड़ सजाते।
कठिन साधना करते करते,छौने निशदिन बढ़ते जाते।
घिसट घिसटकर चलना सीखें,मीठी मीठी बोली बोलें।
उनकी इक मुस्कान की खातिर,माँ उनपर बलिहारी जाती।
दुनियादारी का पाठ सीखने,विद्यालय का रुख वे करते।
बस ड्राइवर आया चपरासी,शिक्षक सब हैं प्यारे लगते।
पर उनमें कुछ छुपे भेड़िये,वो भी उनको प्यारे लगते।
उन्हें खदेड़े जंगल भेजें,छौने सुख की साँस ले सकें।
दिव्या प्रद्युमन जैसे बच्चे आहें भरकर दम ना तोड़ें।
रचनाकार- राजेश कुमार,  कानपुर


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