प्यारी साइकिल एक कविता

प्यारी साइकिल
नई नई साइकिल जब कीनी,
मनमोहिनी सी वह प्राणपियारी।
लगी झालरें रंगविरंगी,
फूल लगे प्यारे प्यारे।
गाँठ सवारी जब हम चलते,
उड़ जाती वह फुर्र पवन सी।
रखते ध्यान सदा हम उसका,
करते उसकी साफ सफाई।
चमका चमका कर रखते उसको,
ज्यों मालिश होती घोड़े की।
हो विचार मन में जाने का,
क्षण में पहुँचाती वो अलबेली।
इठलाती बलखाती चलती,
लहराती थी नागिन सी।
मनभावनी वो प्राणप्रिया सी,
लगती थी वो राजदुलारी।
कभी बिठा कर भार्या को,
सैर कराते बाजारों की।
कभी मचलते बच्चे को,
रौनक दिखलाते सड़कों की।
परिवार भरण पोषण की खातिर,
ले जाते चक्की हाट तलक।
सालों साल सवारी की है,
दफ्तर जाने का अवलम्ब वही।
रोजी रोटी की भागदौड़ में,
रोशन करती थी राहों को।
टनटन कर जब चले सड़क पर,
वो भीड़ फाड़ती काई सी।
पड़ जाती बीमार कभी तो,
नम कर देती थी नयनों को।
समय चक्र नहीं रुकता है,
उड़ जाता खुशबू की माफिक।
जीवन की आपाधापी में,
रफ्तार नहीं कम होने वाली।
कायल हो रफ्तार के हम,
ले आये इक मोटरसाइकिल।
मोटरसाइकिल की चकाचौंध ने,
कर दिया किनारे साइकिल को।
डरी परी इक कोने में,
धूल-धूसरित हो गई वो।
बदसूरत बदरंगी हो,
स्वर्णिम यादों में खोई सी।
थी बनी कभी जो जीवनरेखा,
अब नहीं किसी को भाती है।
बूढ़ी गाय सी हुई नकारा,
तिल तिल कर मरती हो जैसे।
है इंतजार भंगारी का,
जो कोना खाली कर देगा।
मिट जायेगा नामोनिशान।
बस यादें ही रह जायेंगी, बस यादें ही रह जायेंगी.............................
(प्रस्तुत कविता में बुजुर्गजनों की मनोदशा व व्यथा का चित्रण   करने का प्रयत्न किया गया है।)
प्रस्तुति-राजेश कुमार,   कानपुर

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