फरजी भगवान जेल के अंदर- एक कविता

फरजी भगवान जेल के अंदर
खाल ओढ़कर इक भेड़िया,पहुँचा जन जन पास।
नख अपने थे छुपा लिये,आनन में थी गहरी मुस्कान।
दाता पिता सभी कुछ मैं हूँ, मैं ही हूँ भगवान।
घात छुपाई अपने दिल में,होंठों में रख मीठी मुस्कान।
दुष्कर्मी हंता षड़यंत्री,था पापों की वो गहरी खान।
राम रहीम कृष्ण करीम, ईश्वर के हैं नाम अनेक।
धरकर नाम राम रहीम,काली करतूतें था वो करता।
फुसला बहला कर सबजन को,माया अपनी थी खूब फैलायी।
दया धर्म का मंदिर कहकर,नाहर की थी मांद बनायी।
खाल उतार खोलता पंजे,खूंखार भेड़िया वो बन जाता।
शोषक बन वो शोषण करता,शीलभंग वो था करता।
पापों का भर गया घड़ा,आंधी में उड़ गयी थी खाल।
जाँच हुई औ हुई कड़ाई,फरजी रंग चोला उतर गया।
पहुँच गये वो जेल के अंदर,काला चिठ्ठा जभी खुला।
हुए सलाखों के भीतर तब,जब पापों की मिली सजा।
रचनाकार- राजेश कुमार, कानपुर

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