स्वार्थ में परमार्थ- एक कविता
स्वार्थ में परमार्थ
दुखती रग में हाथ रख दिया, मेरे आँसू छलक गये।
उसने अपने घाव कुरेदे, मैं ना उनको समझ सका।
फूलों भरी महकती राहें,अपनी दुनिया मैं ऐसी चाहूँ ।
धूल भरी हों राहें उसकी,मैं उसमें कांटे बिखरा दूँ।
अपने पथ के कंकड़ चुनकर,राह में उसकी मैं बिखराऊँ।
चाहूँ अपना चमन सुहाना,बदसूरत हों उसकी राहें।
मेरा सफर सुहाना हो, उसकी राहों में मौत का मंजर।
स्वार्थ भरा है मेरा जीवन,लोभ मोह से हूँ मैं लथपथ।
कुछ कांटे मैं उसके चुनकर,अपने चमन की बाड़ सजाऊँ।
उसकी राहों की धूल उठा लूँ,उससे अपना चमन महकाऊँ।
अपनी बगिया के कुछ पौधों,से मैं उसका चमन सजाऊँ।
अपने उसके कंकड़ पत्थर,साथ मिला कर राह बनाऊँ।
मेरी उसकी बगिया महके,खुशबू से दामन भर जाये।
दीप से दीप जले ज्यूँ मिलकर,रोशन सारा जहान हो जाये।
हाथ से हाथ मिलाओ सबसे, दुगुना बल और जोश जाये।
बढ़ा हौसला देखे दुनिया,फिर बैरी भी कर पसराये।
रचनाकार- राजेश कुमार,
कानपुर
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