हादसों की दुनिया- एक कविता
हादसों की दुनिया
हादसों की है दुनिया, हादसों
के हैं वतन।
हादसों के हैं गाँव, हैं
हादसों के शहर।
हादसों की हैं सड़कें, हैं
हादसों की डगर।
हादसों की हैं गलियाँ, हैं हादसों के घर।
हादसे रोज होते, है
दुनिया उजड़ती।
करे और कोई, भरे
और कोई।
करता हूँ ही रहता, मैं
रोज ही खतायें।
पर इस उस पे डालूँ, मैं
अपनी खतायें।
थी तेज रफ्तार , वाहन
की मेरी।
हुई तेज टक्कर, गिरा
भूमि पर मैं।
मैं था उनसे बोला, बिल्ली
ने थी राह काटी।
होतीं हैं निस दिन, रेलों
की टक्कर।
पलटते हैं डिब्बे, औ
होती हैं मौतें।
फिर होती हैं जाँचे, पर
नतीजा सिफर है।
मैं था उनसे बोला, करो
कोई हिकमत।
निकालो कोई राह, पर
ना कुछ मैं करूँगा।
कभी फिर से कोई, हादसा
हो अगर तो।
मैं कहता फिरूँगा, तुम्हारी
खता है...तुम्हारी खता है..................
रचनाकार- राजेश कुमार,
कानपुर
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