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सुई – एक कविता

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सुई – एक कविता मैं सुई नुकीली चुभती हूँ, पर खूनी नहीं कहाती हूँ। राह दिखाती चलती हूँ, पर नेता नहीं कहाती हूँ। दूर हो रहे हैं जो अपने, मैं उनको पास बुलाती हूँ। दोष जहाँ पर भी मैं देखूँ, पैबंद लगा कर ढकती हूँ। चुभती हूँ पर दुख न देती, पर नवजीवन दे जाती हूँ। राह बनाती जब मैं चलती, सारे दुख मैं ही सहती हूँ। मेरी राह थाम जो चलते, प्रेम उन्हें सिखलाती हूँ। प्रेम की भाषा मिलना-जुलना, इकजुट रहना सिखलाती हूँ। गुरुजन संत सुजन सब ही तो प्रेम ज्ञान सिखलाते हैं। सुई सरीखी चुभती बातों से, जीवन सद्मार्ग दिखलाते हैं। रचनाकार- राजेश कुमार , कानपुर